कि ख़ुद-नुमाई न तश्हीर चाहते हैं हम बस अपने होने की तौक़ीर चाहते हैं हम रिहाई का यही मफ़्हूम है हमारे लिए पसंद की कोई ज़ंजीर चाहते हैं हम ये देखना है कि रफ़्तार कर रही है क्या तमाम शहर को तस्वीर चाहते हैं हम बहुत उदास है कोई पड़ोस में यारो ज़रा सी जश्न में ताख़ीर चाहते हैं हम ज़रा सी बात जो छेड़ी हुक़ूक़ की हम ने उठा ये शोर कि जागीर चाहते हैं हम हमें बनाया गया है हदफ़ ये जानते हैं तो क्यूँ निशाने पे हर तीर चाहते हैं हम ये तोड़-फोड़ ज़रूरत है कोई शौक़ नहीं नए सिरे से जो ता'मीर चाहते हैं हम बस एक क़ाफ़िया-पैमाई हम ने की है 'सुहैल' सो ऐ ग़ज़ल तिरी ता'ज़ीर चाहते हैं हम