की तलब इक शह ने कुछ पंद अज़-हकीम-ए-नुक्ता-दाँ उस ने सुन के यूँ कहा ऐ साहिब-ए-इक़बाल-ओ-शाँ याद रख और पास रख और सख़्त रख और जम्अ कर खा छुपा, काट और उठा, दे ले, बख़ूबी हर ज़माँ उस ने इस मुज्मल के तफ़सीलात जब पूछे तो फिर लुत्फ़ से उस नुक्ता-रस ने यूँ किया इस का बयाँ याद रख हर दम ख़ुदा को पास रख हुस्न-ए-वफ़ा सख़्त रख दीं को मुदाम और जम्अ कर इल्म ऐ जवाँ खा ग़ज़ब-ग़ुस्सा छुपा ऐब-ए-रफ़ीक़-ओ-आश्ना काट रब्त-ए-हम-नशीन-ए-बद कि है इस में ज़ियाँ और उठा हर दम ज़ईफ़-ओ-ना-तवाँ से ज़ुल्म-ओ-जौर दाद मज़लूमों की दे और ले बहिश्त-ए-जावेदाँ नस्र में मुझ को 'नज़ीर' आए थे ये नुक्ते नज़र मैं ने नज़्म इन को किया तो दिल हो हर दम शादमाँ