किन मंज़िलों में गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार है उन का करम भी मेरी तबीअ'त पे बार है मेरी ज़बाँ पे हर्फ़-ए-शिकायत का मुद्दआ उन की ज़बाँ पे वादा-ए-बे-ए'तिबार है देखे उलट के कोई जो तारीख़ के वरक़ हर नग़्मा मेरा ज़ामिन-ए-फ़स्ल-ए-बहार है इक कश्मकश सी हो गई मौत-ओ-हयात में आँखों को मेरी जब से तिरा इंतिज़ार है ख़ुद अपने आप जान ले अपने मक़ाम को नौ-ए-बशर ज़रा भी अगर बुर्दबार है फैली हुई है जब से चमन में ख़िज़ाँ की बात सिमटा हुआ सा जल्वा-ए-हुस्न-ए-बहार है खाता है कितना ग़म कोई पीता है कितनी मय 'राजे' ये अपने ज़र्फ़ पे दार-ओ-मदार है