किरची किरची मन के अंदर सारे ख़्वाब छुपाए हैं सच की ख़ातिर देखो हम ने क्या क्या दर्द उठाए हैं सच का परचम ले कर निकली झूटों की इस बस्ती में ज़ख़्मी ज़ख़्मी जिस्म है मेरा पत्थर कैसे खाए हैं तपते जलते पत्थर जैसे लोग यहाँ बाज़ारों में हर-सू छाया सन्नाटा है यास के गहरे साए हैं चुप की गहरी घातों में शोरीदा कुछ आवाज़ें हैं बस्ती बस्ती सहरा सहरा कैसे तूफ़ाँ छाए हैं कैसे कोई बात करे अब ताज़ीरें हैं सोचों पर अम्न को यूँ महकूम किया हाकिम ने लब सिलवाए हैं झूट दग़ा इल्ज़ाम-तराशी जिन का शेवा आम हुआ हिर्स-ज़दा सोचों के हामिल अंदर से घबराए हैं 'शफ़क़' अभी से छोड़ गई दिल क्या तुझ को मालूम भी है राह-ए-हक़ीक़त में किस किस ने अपने सर कटवाए हैं