किस क़दर दुश्वार था ये मसअला हल कर दिया एक सरगोशी में उस ने मुझ को पागल कर दिया जाने ये तासीर हाथों में कहाँ से आ गई इत्तीफ़ाक़न उस को छू कर मैं ने संदल कर दिया जिन की जुम्बिश पर कभी था वक़्त का दार-ओ-मदार वक़्त ने धुँदला उन्हीं आँखों का काजल कर दिया क़ाएदे क़ानून सारे रख दिए बाला-ए-ताक़ हम ने इस दुनिया को इंसानों का जंगल कर दिया दूर कर पाया न जब तारीकियाँ कोई 'शरर' आख़िरश अपने क़लम को मैं नय मशअ'ल कर दिया