किस के नग़्मे गूँजते हैं ज़िंदगी के साज़ में इक नई आवाज़ शामिल है मिरी आवाज़ में मेरे घर में छा रही थी शाम-ए-ग़म की तीरगी जब उजाला हो रहा था जल्वा-गाह-ए-नाज़ में दर्द-ए-दिल में यूँ भी जब होती नहीं कोई कमी क्या ज़रूरी है इज़ाफ़ा हुस्न के अंदाज़ में मैं अगर ख़ामोश हूँ ख़ामोश रहने दीजिए मेरी ख़ामोशी से क्या क्या हादसे हैं राज़ में हम ने देखे हैं कुछ ऐसे भी असीरान-ए-चमन जिन की सारी उम्र गुज़री हसरत-ए-परवाज़ में हँस रहा हूँ याद कर के इश्क़ की नादानियाँ सुन रहा हूँ दास्ताँ अपनी तिरे अंदाज़ में तुम न होते इस क़दर रुस्वा ज़माने में 'शजीअ' सोच लेते इश्क़ का अंजाम अगर आग़ाज़ में