किस रंग में हैं अहल-ए-वफ़ा उस से न कहना क्यूँ फूल हैं ख़ुश्बू से जुदा उस से न कहना डूबी नहीं मुद्दत से जो नज़रों के भँवर में इस आँख का जो हाल हुआ उस से न कहना यादों के दर-ओ-बाम पे इक नाम वही नाम क्या जाने कई बार लिखा उस से न कहना लिपटी थी दरीचों से हसीं चाँदनी कैसे क्या क्या मुझे तारों ने कहा उस से न कहना बुझती ही नहीं प्यास यहाँ जलते लबों की बिन बरसे गुज़रती है घटा उस से न कहना बिखरी थीं कभी रंगतें उस सूने नगर में अब 'शाम' न ख़ुश्बू न हवा उस से न कहना