किसी महल में न शाहों की आन-बान में है सुकून जो किसी ढाबे के साएबान में है मैं उस मक़ाम पर हूँ जैसे कोई ख़ाली हाथ निगाह-ए-हसरत-ओ-अरमाँ लिए दुकान में है दरिंदे शहर में आबाद हो गए सारे सुना है साथ का जंगल बड़ी अमान में है ये जानता है पलट कर उसे नहीं आना वो अपनी ज़ीस्त की खिंचती हुई कमान में है