किस तरह लब पे हँसी बन के फ़ुग़ाँ आती है मुझ से पूछो मुझे फूलों की ज़बाँ आती है ज़हर-ए-ग़म पीजे तो अल्फ़ाज़ में रस आता है दिल को ख़ूँ कीजे तो अफ़्कार में जाँ आती है ख़ैर हो दिल की कि फिर लय वही छेड़ी उस ने जैसे कश्ती की तरफ़ मौज-ए-रवाँ आती है शिकन-ए-ज़ुल्फ़ भी है हुस्न-ए-तरब में गोया खिंच के हर तान में तस्वीर-ए-बुताँ आती है बात वो है जो लब-ए-ला'ल-ए-निगाराँ से चले ख़ूँ भी हो दिल तो ये तासीर कहाँ आती है फिर नज़र आती है मेहराब-ए-हरम ख़ाली सी फिर वही याद-ए-बुताँ आफ़त-ए-जाँ आती है ख़ुश-अदाओं के सुख़न एक ही सारे 'हक़्क़ी' उन को यूरोप में भी दिल्ली की ज़बाँ आती है