किस तरह मान लें तुझे हक़ पर लोग चलते हैं अपने मस्लक पर अश्क जमते हैं दिन की गर्मी में दिल पिघलता है शब की ठंडक पर नींद बिस्तर पे आ के बैठी है और है मेरा ध्यान दस्तक पर दख़्ल होता कहाँ है मज़हब का इश्क़ चलता कहाँ है मस्लक पर क़ीमतों के ग़ुरूर में आ के हंस रही है दुकान गाहक पर वो थी शौक़ीन रेल देखने की मैं भी जाता था रोज़ फाटक पर चाट जाती है रूह को 'आरिज़' डालिए ज़हर मन की दीमक पर