किस वक़्त हादसों से पड़ा साबिक़ा मुझे ख़ुद नाग बन के डसता है साया मिरा मुझे मैं ने ख़ुशी से बार-ए-अमानत उठा लिया हैरत से तकते रह गए अर्ज़-ओ-समा मुझे एहसास-ए-दर्द लज़्ज़त-ए-ग़म प्यार का ख़ुमार मत पूछ बज़्म-ए-नाज़ से क्या क्या मिला मुझे ये इंकिशाफ़-ए-ज़ात है मेराज-ए-ज़िंदगी कुछ भी नहीं है याद ख़ुदा के सिवा मुझे तक़रीर काम आई न तहरीर उम्र भर इक जुम्बिश-ए-निगाह ने चौंका दिया मुझे फिर मुस्कुरा उठे हैं मेरे ज़ख़्म-हा-ए-दिल फिर तेरी याद बन गई इक सानेहा मुझे सुब्ह-ए-नशात-ए-दिल है न शाम-ए-ग़म-ए-'हयात' ऐ इज़्तिराब-ए-शौक़ कहाँ ले चला मुझे