किसे है फ़िक्र कि रंग अपना उड़ गया कितना कि पत्थरों से था शीशे का फ़ासला कितना सिमट के लोग गुफाओं में हो गए महबूस ख़ुद अपने ख़ून का लेते भी ज़ाइक़ा कितना सफ़र तमाम हुआ और ये नहीं मालूम हमारी ज़ात से हम तक है फ़ासला कितना न कोई नक़्श-ए-क़दम है न कोई हंगामा बदल गया है तिरे घर का रास्ता कितना ग़ुबार था मैं हवा थी मिरे तआ'क़ुब में वो चाहता भी तो मुझ को समेटता कितना मिरी नज़र मुझे पहचानने से क़ासिर है मैं अपनी ज़ात के अंदर समा गया कितना सफ़र-गुज़र परिंदो मिरी ख़बर रखना मुझे ख़बर नहीं रखना है फ़ासला कितना 'अयाज़' अभी नहीं उभरे नुक़ूश-ए-जिस्म तमाम अभी से ख़ुद को वो पहचानने लगा कितना