किश्त-ए-उम्मीद बारवर न हुई लाख सूरज उगे सहर न हुई हम मुसाफ़िर थे धूप के हम से नाज़-बरादारी-ए-शजर न हुई मुझ को अफ़सोस है कि तेरी तरफ़ सब ने देखा मिरी नज़र न हुई घर की तक़्सीम के सिवा अब तक कोई तक़रीब मेरे घर न हुई नाम मेरा तो था सर-ए-फ़िहरिस्त इत्तिफ़ाक़न मुझे ख़बर न हुई जाने क्या अपना हाल कर लेता ख़ैर गुज़री उसे ख़बर न हुई