किश्त-ए-दयार-ए-सुब्ह से तारे उगाऊँ मैं जी चाहता है नित-नए मंज़र दिखाऊँ मैं वो शख़्स चीख़ता हुआ अम्बोह बन चुका किस किस को बोलने दूँ किसे चुप कराऊँ मैं अब तो हँसी भी ख़त्म है अफ़्सुर्दगी भी ख़त्म लब-बस्ता-ए-अज़ल तुझे कितना हँसाऊँ मैं इक ख़्वाब मिस्ल-ए-अश्क निकल आए चश्म से दरवाज़ा-ए-गुमाँ जो कभी खटखटाऊँ मैं तू आ चुका है देख लिया मान भी लिया अब और क्या करूँ तुझे सर पर बिठाऊँ मैं क्या फ़र्क़ पड़ सकेगा अँधेरे की शरह में कुछ देर रौशनी से अगर भर भी जाऊँ मैं ख़ामोश रह कि फिर तिरी आवाज़ सुन सकूँ नज़रों से दूर जा कि तुझे देख पाऊँ मैं आईने इस तरह मुझे तकता है किस लिए पहचान भी लिया कि तआ'रुफ़ कराऊँ मैं 'शारिक़' हर एक शक्ल से मिलती है कोई शक्ल आख़िर बदन पे कौन सा चेहरा लगाऊँ मैं