किश्त-ए-दिल वीराँ सही तुख़्म-ए-हवस बोया नहीं ख़्वाहिशों का बोझ मैं ने आज तक ढोया नहीं उस की आँखों में बिछा है सुर्ख़ तहरीरों का जाल ऐसा लगता है कि इक मुद्दत से वो सोया नहीं ख़्वाब की अंजान खिड़की में नज़र आया था जो ज़ेहन ने उस चेहरा-ए-मानूस को खोया नहीं एक मुद्दत पर मिले भी तो न मिलने की तरह इस तरह ख़ामोश हो मुँह में ज़बाँ गोया नहीं मैं ने अपनी ख़्वाहिशों का क़त्ल ख़ुद ही कर दिया हाथ ख़ून-आलूद हैं इन को अभी धोया नहीं देख कर होंटों पे मेरे मुस्कुराहट की लकीर वो समझते हैं कि 'असलम' मैं कभी रोया नहीं