किसी अपने से होती है न बेगाने से होती है जो उल्फ़त एक दीवाने को दीवाने से होती है सुबू से जाम से मीना से पैमाने से होती है मोहब्बत मय से हो कर सारे मय-ख़ाने से होती है कोई क़िस्सा हो कोई वाक़िआ कोई हिकायत हो तसल्ली दिल को दर्द-ए-दिल के अफ़्साने से होती है मिरी तौबा से कह दो वो भी आ कर शौक़ से सुन ले अजब आवाज़ पैदा दल के पैमाने से होती है नज़र से छुपने वाले दिल से आख़िर क्यूँ नहीं छुपते ये कैसी बे-हिजाबी आइना-ख़ाने से होती है बहार-ए-चंद-रोज़ा से कोई माँगे तो क्या माँगे ख़िज़ाँ को भी नदामत हाथ फैलाने से होती है घटाएँ ग़म की छट जाती हैं उन के मुस्कुराने से कि जैसे सुब्ह पैदा रात ढल जाने से होती है 'फ़िगार' एहसास-ए-दिल में हर तरफ़ काँटे ही काँटे हैं यही तस्कीन गुलशन में बहार आने से होती है