किसी और को मैं तिरे सिवा नहीं चाहता सो किसी से तेरा मुवाज़ना नहीं चाहता कोई कुंद ज़ेहन क़बील से है मिरे ख़िलाफ़ कि वो रौशनी का ही इर्तिक़ा नहीं चाहता तू हसीन है सो मुग़ालते में न ख़र्च हो मिरे दोस्त दिल से तुझे ज़रा नहीं चाहता तिरा वस्ल चाहे रगों में ज़हर उतार दे तिरे हिज्र का कभी अज़दहा नहीं चाहता अभी दिल को माज़ी की सोहबतों का मलाल है नए शहर में कोई आश्ना नहीं चाहता ये परिंद पेड़ चराग़ तो मिरे साथ हैं मिरा ख़ानदान मिरी रज़ा नहीं चाहता