किसी बात पे रंज ख़ुदा की क़सम न इधर से हुआ न उधर से हुआ किसी तरह का रंज-ओ-मलाल बहम न इधर से हुआ न उधर से हुआ हुए यार तो राही-ए-मुल्क-ए-अदम यहाँ रोते हैं उन के फ़िराक़ में हम खुले क्यूँकि ये हाल कि हाल रक़म न इधर से हुआ न उधर से हुआ मिरे उन के जो दिल को था रब्त बहम ये ग़लत है जो ग़ैर बताते हैं कम वही रब्त है पहला सा इस में तो कम न इधर से हुआ न उधर से हुआ हमें ज़ब्त की ख़ू उन्हें ज़ुल्म का ढब गई उम्र तो अपनी इसी में ही सब रहा ये ही मोआमला चारा-ए-ग़म न इधर से हुआ न उधर से हुआ कभी दिल को जिगर का है रंज-ओ-अलम कभी दिल का जिगर को है सदमा-ए-ग़म रहा यूँ ही जुदा ग़म-ओ-रंज-ओ-अलम न इधर से हुआ न उधर से हुआ कोई कहता क़दीम ज़माने को है कोई ले गया उस के हुदूस पे पय जो था हक़्क़-ए-सुबूत-ए-हुदूस-ओ-क़िदम न इधर से हुआ न उधर से हुआ यूँ ही हम तो सितम-कश-ए-चर्ख़ रहे इसी हाल में यार के ज़ुल्म सहे कभी 'ऐश' कम आह ये ज़ुल्म-ओ-सितम न इधर से हुआ न उधर से हुआ