ना तो पिसते ही से रग़बत है ना बादाम से शौक़ है मगर चश्म-ओ-लब-ओ-साक़ी-ओ-गुलफ़ाम से शौक़ जो गिरफ़्तार हैं उस ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल के सुना ना उन्हें काम क़फ़स से है ना कुछ दाम से शौक़ कौन सा होवेगा कम्बख़्त वो आशिक़ जिस को होगा फ़ुर्क़त में दिल-आराम के आराम से शौक़ मिस्ल-ए-आईना तकेगा तिरी सूरत को मुदाम ये तो जाने का नहीं इस दिल-ए-नाकाम से शौक़ फाड़ कर ख़त को वो कहने लगे क़ासिद से मुझे अबे सुनता है नहीं नामा-ओ-पैग़ाम से शौक़ इस तवक़्क़ो पे कि शायद वो सहर को निकले घर से बाहर लिए फिरता है सर-ए-शाम से शौक़ ज़ुल्फ़ उस रुख़ पे छुटी रहती है हैरान है अक़्ल क्यों ना हैरान हो हिन्दू को और इस्लाम से शौक़ फिरना उस कूचे में या पलकों से झाड़ू देनी रात दिन हम को है ऐ 'ऐश' इसी काम से शौक़