किसी बचपन में बनाई हुई कश्ती जैसा साथ तेरा था मगर धूप की नर्मी जैसा मैं मुसाफ़िर थी कि मंज़िल ही नहीं थी जिस की तू मिरे साथ किसी रेल की पटरी जैसा फूल शाख़ों पे कोई खिल ही नहीं पाया था मौसम-ए-वस्ल किसी हिज्र की सख़्ती जैसा सख़्तियाँ बोलती रहती थीं तिरे लहजे में और मिरा दिल ये किसी काँच की चूड़ी जैसा हम तिरे वा'दे की ज़ंजीर लिए बैठे रहे जागती आँख में इक ख़्वाब था लोरी जैसा दर्द इन आँखों से दरिया की तरह निकला है 'हादिया' हम तो समझते थे सराबी जैसा