किसी बुत के शिकम से गर कोई आज़र निकल आए ख़िरद का बंद टूटे और इक पत्थर निकल आए तक़ाज़े जब बदन के रूह में ढल कर निकल आए क़बा के बंद टूटे और हसीं बिस्तर निकल आए ज़माना ना-शनासी का मुरव्वत बे-ख़याली की न जाने किस गली किस मोड़ पर ख़ंजर निकल आए उगे हैं ख़्वाब-ज़ारों में मनाज़िर सर-तराशी के सुहानी वादियों में बावले लश्कर निकल आए थकन का बोझ ले कर कोई कितनी दूर चलता है मगर जब राह में इक मील का पत्थर निकल आए छुपा कर जिन चराग़ों को निहाँ-ख़ाने में रक्खा था फ़सील-ए-जाँ पे जलने के लिए क्यूँ कर निकल आए