किसी गली किसी छत पर ज़रूर निकलेगा वो चाँद अब्र से बाहर ज़रूर निकलेगा ये हुकमरानी-ए-शब देर तक नहीं होगी कहीं से मेहर-ए-मुनव्वर ज़रूर निकलेगा इसी गिरानी-ए-शब की दबीज़ चादर से नुमूद-ए-सुब्ह का मंज़र ज़रूर निकलेगा ख़ुद अपने आप से लड़नी पड़ेगी जंग हमें दिलों से ख़ौफ़ का लश्कर ज़रूर निकलेगा ये शहर-ए-शीशागराँ है तो फिर यहीं पे कहीं किसी की जेब से पत्थर ज़रूर निकलेगा ग़ुबार-ए-दिल-ज़दगाँ को बहुत हक़ीर न जान ये एक हश्र उठा कर ज़रूर निकलेगा उसे ख़याल-ए-दिल-ए-दोस्ताँ अगर आया तो आँसुओं का समुंदर ज़रूर निकलेगा कुरेदते रहो वीरान बस्तियों की ये राख यहीं कहीं पे मिरा घर ज़रूर निकलेगा ख़मोशियों की इसी सर-ज़मीन से 'अश्फ़ाक़' कोई न कोई सुख़नवर ज़रूर निकलेगा