किसी इश्क़-ओ-रिज़्क के जाल में नहीं आएगा ये फ़क़ीर अब तिरी चाल में नहीं आएगा मैं मना तो लूँगा उसे मगर वो अना-परस्त मिरी सम्त अब किसी हाल में नहीं आएगा मैं कहूँगा हर्फ़-ए-तलब कुछ ऐसे कमाल से मिरा दर्द मेरे सवाल में नहीं आएगा कभी अपनी एक झलक मुझे भी नवाज़ दे कोई फ़र्क़ तेरे जमाल में नहीं आएगा यही मेहनतों का सिला रहा तो फिर ऐ ख़ुदा मुझे लुत्फ़-ए-रिज़्क-ए-हलाल नहीं आएगा