किसी का दर्द हो दिल बे-क़रार अपना है हवा कहीं की हो सीना फ़िगार अपना है हो कोई फ़स्ल मगर ज़ख़्म खुल ही जाते हैं सदा-बहार दिल-ए-दाग़-दार अपना है बला से हम न पिएँ मय-कदा तो गर्म हुआ ब-क़द्र-ए-तिश्नगी रंज-ए-ख़ुमार अपना है जो शाद फिरते थे कल आज छुप के रोते हैं हज़ार शुक्र ग़म-ए-पाएदार अपना है इसी लिए यहाँ कुछ लोग हम से जलते हैं कि जी जलाने में क्यूँ इख़्तियार अपना है न तंग कर दिल-ए-महज़ूँ को ऐ ग़म-ए-दुनिया ख़ुदाई-भर में यही ग़म-गुसार अपना है कहीं मिला तो किसी दिन मना ही लेंगे उसे वो ज़ूद-रंज सही फिर भी यार अपना है वो कोई अपने सिवा हो तो उस का शिकवा करूँ जुदाई अपनी है और इंतिज़ार अपना है न ढूँढ 'नासिर'-ए-आशुफ़्ता-हाल को घर में वो बू-ए-गुल की तरह बे-क़रार अपना है