किसी के अहद-ए-तमन्ना में हम जिए कितने हमारे सामने टूटे हैं आइने कितने न पूछ हम से अकारत हुई जवानी भी कि तेरे हिज्र में काटे हैं रत-जगे कितने मिरे नसीब के तारे तो बुझ गए हैं मगर तिरे नसीब के तारे चमक उठे कितने मिरे हलीफ़ भी सब मिल गए हरीफ़ों से ये मेरे यारों ने मुझ को हैं दुख दिए कितने अमीर-ए-शहर की थोड़ी सी कज-रवी के सबब ग़रीब-ए-शहर ने देखे हैं हादसे कितने