किसी के दुख से न कर सुख कशीद तौबा कर उभर न वक़्त का बन कर यज़ीद तौबा कर फ़सील-ए-ज़ात से बाहर निकल कि ये दुनिया तिरे भरम से है मुतलक़ बईद तौबा कर निगाह-ए-शौक़ को जल्वे से यूँ न रख महरूम है शिर्क जुरअत-ए-इंकार-ए-दीद तौबा कर कि नज़्म-ए-मय-कदा रिंदों की ताब ला न सके बढ़ा न तिश्नगी इतनी शदीद तौबा कर जो नज़्म-ओ-नस्र का है फ़र्क़ उस को क़ाएम रख अदब की कर न यूँ मिट्टी पलीद तौबा कर जहान-ए-नौ में अजाइब-घरों की ज़ीनत हैं तमाम ग़ाज़ी तमामी शहीद तौबा कर नजात के लिए मोहलत बची है कम अब और न कर ज़मीर की बै'अ-ओ-ख़रीद तौबा कर