यूँ निकलती है दिल से आह कहीं हो न हो लड़ गई निगाह कहीं बढ़ती ही जाती हैं तमन्नाएँ दिल को कर दें न ये तबाह कहीं देख ली मैं ने भी झलक उन की चूकती है मिरी निगाह कहीं ले के दिल तू ने तो चुराई आँख इस तरह होती है निबाह कहीं हम से आख़िर वो मुँह छुपाने लगे छुपती है शौक़ की निगाह कहीं अक़्ल ने इस में टेढ़ पैदा की नज़र आई जो सीधी राह कहीं ज़ब्त-ए-गिर्या का एहतिमाम तो है न निकल जाए मुँह से आह कहीं तेरे दर पर जिसे अमाँ न मिली उस को मिलती नहीं पनाह कहीं दिल को आँखों ने कर दिया गुमराह अब ये होता है रू बराह कहीं ग़ैर का इश्क़ दिल-लगी ठहरा हम से होता जो ये गुनाह कहीं कह न दे उन से हाल-ए-दिल 'आसिफ़' मेरी हसरत-भरी निगाह कहीं