किसी की आँख में क्या एक पल गुज़ार आया मैं अपनी ज़ीस्त के रंज-ओ-अलम उतार आया वो जिस के नाम पे हम मंज़िलें फ़िदा करते हमें वो शख़्स कहीं राह में ही मार आया शब-ए-फ़िराक़ से कह डाले दर्द दुनिया के कहाँ का बोझ था और मैं कहाँ उतार आया कि मेरी तीरा-शबी में कोई चराग़ जले मैं इस ख़याल से रातें कई गुज़ार आया सो अब तो धोका ही खाना मिरा मुक़द्दर है ये किस जगह पे मुझे ले के ए'तिबार आया मजाल-ए-तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ न हो सकी वर्ना ख़याल-ए-तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ तो बार-बार आया उदास कमरे की वहशत की ख़ैर हो या-रब हम ऐसे दश्त-नवर्दों को भी क़रार आया मैं एक उम्र से अपनी मुख़ालिफ़त में हूँ मैं क्या करूँगा अगर उस तरफ़ से वार आया हम एक सहन में पल कर बड़े हुए हैं 'फहीम' शजर पे बोर तो काँधों पे मेरे बार आया