काँटों को चूम ले न कोई इज़्तिराब में रख दी है किस ने आप की ख़ुशबू गुलाब में महका रहा है आज भी मेरे वजूद को रक्खा था इक गुलाब जो तू ने किताब में था किस की आस्तीन पे मक़्तूल का लहू लिक्खा गया है क़त्ल ये किस के हिसाब में फिरता हूँ लाश काँधों पे अपनी लिए हुए सदमे उठाए मैं ने वो अहद-ए-शबाब में पूछा तबीब से जो ग़म-ए-इश्क़ का इलाज लिक्खा है उस ने इश्क़-ए-मुकर्रर जवाब में पड़ती हैं जिस तरफ़ ये गिराती हैं बिजलियाँ रखिए निगाहें अपनी ख़ुदारा नक़ाब में दस्तक पे उन की रात अचानक मैं चौंक उठा पूछा जो मैं ने कौन वो बोले जनाब मैं शायद ग़म-ए-हयात की तल्ख़ी मिटा सकें पीने लगा हूँ अश्क मिला कर शराब में हमराह इश्क़ भी है ग़म-ए-ज़ीस्त भी 'फहीम' मैं मुब्तला हूँ इन दिनों दुहरे अज़ाब में