किसी की अंजुमन-ए-नाज़ में हुआ रुस्वा मैं इक रिंद-ए-तरब-गाह-ए-आरज़ू ठहरा वो मुस्कुरा दिया साग़र छलक उठा दिल का नशा चढ़ा तो कुछ ऐसा कि फिर उतर न सका कभी तलातुम-ए-दरिया कभी है हसरत-ए-दिल हमारे हुस्न-ए-तलब को दुआ से निस्बत क्या ख़िज़ाँ के सर कोई इल्ज़ाम किस लिए आए गले पे बन गया ख़ंजर बहार का सौदा चराग़-ए-राहगुज़र शान-ए-बे-नियाज़ी से तमाम रात हवाओं की ज़द में रौशन था कहाँ के दार-ओ-रसन कुश्ता-ए-वफ़ा के लिए उसे तो कूचा-ए-जानाँ की लग चुकी है हवा जबीन-ए-शौक़ तो रख दी है आस्ताँ पे तिरे हवा-ए-दिल न उड़ा ले चले सू-ए-सहरा वो जिस के हुस्न का शोहरा तमाम शहर में है सुना है 'अंजुम'-ए-वहशी पे मेहरबान हुआ