किसी की शाम-ए-सादगी सहर का रंग पा गई सबा के पाँव थक गए मगर बहार आ गई चमन की जश्न-गाह में उदासियाँ भी कम न थीं जली जो कोई शम-ए-गुल कली का दिल बुझा गई बुतान-ए-रंग-रंग से भरे थे बुत-कदे मगर तेरी अदा-ए-सादगी मिरी नज़र को भा गई मेरी निगाह-ए-तिश्ना-लब की सरख़ुशी न पूछिए के जब उठी निगाह-ए-नाज़ पी गई पिला गई ख़िज़ाँ का दौर है मगर वो इस अदा से आए हैं बहार 'दर्शन'-ए-हज़ीं की ज़िंदगी पे छा गई