किसी को अपनी किसी को अपनी किसी को अपनी पड़ी हुई है हमें तो ले दे के सारी दुनिया में सिर्फ़ तेरी पड़ी हुई है हम अपने बारे में सब सवालात और लोगों से पूछते हैं हमारे हाथों से ज़िंदगी की किताब ऊँची पड़ी हुई है वो ग़ैर लोगों की ग़ैर धरती पे पाँव के नक़्श काढ़ता है इधर हमारे चनाब की रेत अब भी सूनी पड़ी हुई है बहुत परेशाँ हूँ इतनी उजलत में ठीक चेहरा नहीं बनेगा मैं ख़ुद को तरतीब दे रहा हूँ और उस को जल्दी पड़ी हुई है ये उस की मर्ज़ी है जिस को देखे मगर मुसावात से तो देखे किसी की रंगत दहक रही है किसी की फीकी पड़ी हुई है