किसी महाज़ पे वो बोलने नहीं देता ज़रूरतन भी ज़बाँ खोलने नहीं देता क़फ़स में अब भी मुहाफ़िज़ कई परिंदों पर निगाह रखता है पर तोलने नहीं देता वो जिस का हक़ है उसे भी तो ना-शनास-ए-वफ़ा महल-सराओं के दर खोलने नहीं देता मिरा भी प्यार है सादिक़ इसी लिए तो कभी किसी को प्यार में सम घोलने नहीं देता वो चाहता है कि सहरा-नवर्द बन जाऊँ मकान-ए-ज़ह्न के दर खोलने नहीं देता हज़ार-हा गुहर-ए-अश्क-ए-गुल ब-वक़्त-ए-सहर चमन में मौसम-ए-गुल रोलने नहीं देता वो तर्क-ए-इश्क़ की देता है धमकियाँ मुझ को जो बात सच है उसे बोलने नहीं देता हवा ने पैरहन-ए-बादबाँ उड़ा भी दिया ये ना-ख़ुदा है कि लब खोलने नहीं देता तख़य्युलात पे 'हैरत' के छा गया ऐसा तसव्वुरात के दर खोलने नहीं देता