किसी नई तरहा की रवानी में जा रहा था चराग़ था कोई और पानी में जा रहा था रुका हुआ था वो क़ाफ़िला तो मगर अभी तक ग़ुबार अपनी ही बे-करानी में जा रहा था मुझे ख़बर थी वो क्या करेगा सुलूक मुझ से सो मैं ब-ज़ाहिर तो ख़ुश-गुमानी में जा रहा था मैं तंगी-ए-दिल से ख़ुश नहीं था इसी सबब से मकाँ से बाहर की ला-मकानी में जा रहा था तुम अपनी मस्ती में आन टकराए मुझ से यक-दम इधर से मैं भी तो बे-ध्यानी में जा रहा था तिरी रुकावट से भी मिरे पाँव कैसे रुकते कि मैं किसी और सर-गिरानी में जा रहा था मिरे लिए अजनबी था सैलाब-ए-ख़्वाब में वो जो लफ़्ज़ चुप-चाप मौज-ए-मअ'नी में जा रहा था सुख़न से बीमार क्यूँ न होता मैं आख़िर अपने कि लुत्फ़ सारा तो ख़ुश-बयानी में जा रहा था 'ज़फ़र' मिरे ख़्वाब वक़्त-ए-आख़िर भी ताज़ा-दम थे ये लग रहा था कि मैं जवानी में जा रहा था