किसी साँचे में ढल नहीं पाती ज़िंदगी क्यों सँभल नहीं पाती ना-गहानी का ख़ौफ़ ऐसा है कोई उम्मीद पल नहीं पाती बर्सहा से मिरे फ़िराक़ में है फिर भी मुझ को अजल नहीं आती दूर ऐंठन की तो है बात कुजा मुझ से रस्सी भी जल नहीं पाती उस ने अच्छा किया किनारा किया दूर तक मैं भी चल नहीं पाती निकहत-ए-गुल की क्या तवक़्क़ो हो जब कली कोई खिल नहीं पाती