किसी सूरत से उस महफ़िल में जा कर मुक़द्दर हम भी देखें आज़मा कर तग़ाफ़ुल-केश मैं ने ही बनाया उसे हाल-ए-दिल-ए-शैदा सुना कर उठा लेने से तो दिल के रहा मैं तू अब ज़ालिम वफ़ा कर या जफ़ा कर तिरे गुलशन में पहुँचे काश इक दिन नसीम-ए-आश्नाई राह पा कर ख़ुशी उन को मुबारक हो इलाही वो ख़ुश हैं ख़ाक में मुझ को मिला कर दहन है रश्क से ग़ुंचे का पुर-ख़ूँ किधर देखा था तुम ने मुस्कुरा कर वो शरमाते हैं सुन कर वस्ल का नाम रहा हूँ मैं जो चुप तो बात पा कर हुआ वो बेवफ़ाई में मुसल्लम निशान-ए-तुर्बत-ए-आशिक़ मिटा कर गुनाह अपने मुझे याद आए 'वहशत' ख़जिल सा रह गया मैं हाथ उठा कर