किसी तरह भी जो इस रेग-ज़ार-ए-हस्ती पर उभर सका जो न पूरा वो नक़्श-ए-पा हूँ मैं जो हर तरफ़ से हवाओं की ठोकरें खाए दर-ए-क़ुबूल की रद-कर्दा वो दुआ हूँ मैं न हौसलों में तमव्वुज न वलवलों में ख़रोश इसी का नाम है जीना तो जी रहा हूँ मैं वफ़ा पे तंज़ है आवारगी-ए-शौक़ नहीं हर आस्ताँ पे जो सज्दे बिखेरता हूँ मैं बदल सकी जिसे अब तक न बे-रुख़ी तेरी वही वफ़ा का सताया हुआ 'रज़ा' हूँ मैं