किसी तेज़ झोंके के संग थी मिरी ओढ़नी कभी सर पे थी कभी उड़ गई मिरी ओढ़नी वो जो ज़ख़्म-ख़ुर्दा सी वहशतें थी निगाह में उन्हें अपने पल्लू से जोड़ती मिरी ओढ़नी कोई साएबाँ जो दुआ सा था मिरी राह में वो नहीं रहा तो कहाँ रही मिरी ओढ़नी वो सँभल सँभल के उठा रही है हर इक क़दम मिरी लाडली ने जो ओढ़ ली मिरी ओढ़नी जो मिरे नसीब के ख़्वाब थे वो सराब थे उन्ही मौसमों में रची-बसी मिरी ओढ़नी न कसक रही न चसक रही न ही हैरतें वो बदल गया तो बदल गई मिरी ओढ़नी