किताब-ए-दिल का तिरी इंतिसाब बाक़ी है हक़ीक़तों से अलग एक ख़्वाब बाक़ी है वो इश्क़ भूल गए जिस को तुम उसी के लिए हमारे दिल में अभी इज़्तिराब बाक़ी है जहान कम था कि दोज़ख़ भी इक बना डाली इलाही कौन सा ऐसा अज़ाब बाक़ी है अगर सुनाऊँ हदीस-ए-जुनूँ तो चंद अल्फ़ाज़ लिखूँ अगर तो ये पूरी किताब बाक़ी है हमारे साथ तो चल तसफ़िया हुआ तेरा ठहर कि तुझ से हमारा हिसाब बाक़ी है ये बहस छोड़िए मुजरिम हूँ या नहीं कीजे जो रह गया है सितम जो इताब बाक़ी है हुआ तमाम सफ़र दश्त का मगर 'आसिम' लबों पे रेत नज़र में सराब बाक़ी है