ख़त्म कर देते हैं लीजे आज अफ़्साने को हम शम्अ' के पहलू में दफ़नाते हैं परवाने को हम ये नहीं है देख कर आए हैं दोज़ख़ या बहिश्त बंदगी करते हैं अपने दिल के बहलाने को हम पत्थरों में जान डालेंगे सरों को फोड़ कर अज़्म ये कर के चले हैं आज बुत-ख़ाने को हम शब हुई तो उस शजर ही को अलाव कर लिया साए में बैठे थे जिस के दिन में सुस्ताने को हम बहस के दौरान ख़ुद हम मुत्तफ़िक़ उस से हुए ज़ो'म में अपने गए थे उस के समझाने को हम धूल उड़ती छोड़ कर चल देगा आगे कारवाँ और रह जाएँगे 'आसिम' ठोकरें खाने को हम