किताब-ए-इश्क़ की शरह-ए-मतीन तक पहुँचूँ कभी तो मंसब-ए-आ'ला-तरीन तक पहुँचूँ उड़ाए फिरती है मुझ को अना फ़ज़ाओं में भला मैं कैसे वफ़ा की ज़मीन तक पहुँचूँ मुझे वो मय तो पिला दे कि बे-ख़ुदी में भी रुमूज़-ए-हस्ती-ए-कामिल-यक़ीन तक पहुँचूँ हज़ार ख़ूबियाँ मुझ में हैं रश्क के क़ाबिल है मेरा अज़्म कि मैं बेहतरीन तक पहुँचूँ सुना है मैं ने बहुत तू हसीं है ऐ दुनिया मैं चाहता हूँ कि तुझ से हसीन तक पहुँचूँ मुझे यक़ीन है तू उन के साथ रहता है मिरी बिसात कहाँ साबिरीन तक पहुँचूँ इबादतों का बनूँ नूर इस तरह 'अनवर' निशान बन के किसी की जबीन तक पहुँचूँ