किताब-ए-ज़ीस्त के औराक़-ए-तार-तार के नाम मैं इंतिसाब हूँ ख़ुद अपने इंतिशार के नाम वो उम्र भर जिसे ढोया रह-ए-तजस्सुस में मिरा ग़ुबार-ए-बदन है उसी सवार के नाम उसी की पुश्त पे इक ताक़-ए-बे-चराग़ भी है वो एक दर जो है ख़ुर्शीद-ए-कामगार के नाम वही मकान जिसे इश्क़ ने बनाया था हवस ने कर दिया उस को भी कम-अयार के नाम तबाह कर गई जिस को हवा-ए-गर्म 'ज़िया' मिरा असासा-ए-ग़म है उसी बहार के नाम