मत पूछिए क्या जीतने निकला था मैं घर से मत पूछिए क्या हार के लौटा हूँ सफ़र से कुछ मैं भी गिराँ-गोश था सुन ही नहीं पाया कुछ वक़्त भी गुज़रा है दबे पाँव इधर से कल रात भी था चौदहवीं का चाँद फ़लक पर कल रात भी इक क़ाफ़िला निकला था खंडर से इक अब्र का टुकड़ा है परिंदा है कि तू है ये कौन है जो रोज़ गुज़रता है इधर से क्या जाने मुझे तख़्त-ए-सुलैमाँ कहाँ ले जाए झपकी ही नहीं आँख मिरी ख़्वाब के डर से देखा तो किसी आँख में हैरत भी नहीं थी ख़ाली था मिरा खेल भी हर कैफ़-ओ-असर से सूरज के तआ'क़ुब में हुआ वो भी तह-ए-आब इक शख़्स 'ज़िया' साथ था हंगाम-ए-सहर से