किताब-ए-हिज्र में इक हर्फ़-ए-ना-रसा की तरह मुझे भी लिखे कोई जॉन फ़ारिहा की तरह भले ये हाथ बंधे हैं मगर ये काजल है सो फैल जाता है इक कासा-ए-गदा की तरह वो मुझ से मिलता था हर बार अपनी शर्तों पर कभी ख़ता की तरह और कभी सज़ा की तरह मुझे सताती रहें तितलियाँ शरारत से गुलों की बात वो करता रहा सबा की तरह जो बात करता था मुझ से मिरे ही लहजे में न आया लौट के वापस मिरी सदा की तरह ये बात तय थी कि रहना है अजनबी बन कर सो ओढ़ ली तिरी बेगानगी रिदा की तरह हमारे बीच अगर कुछ नहीं तो फिर क्या है निभाते रहते हैं दोनों जिसे वफ़ा की तरह मुझे ही जल्दी थी कुछ काम और निप्टा लूँ वो आ के बैठा था अच्छा भला सदा की तरह किसी के हाथों की गर्मी से जब मिली ठंडक तू याद आ गई 'सीमा' मुझे रसा की तरह