किताब-ए-इश्क़ में सारा बयाँ विसाल का है मैं ज़िंदा हिज्र में हूँ और गुमाँ विसाल का है हम ऐसे फ़र्क़-ए-तअ'ल्लुक़ से ख़ुद भी हैराँ हैं ज़मीं है हिज्र की और आसमाँ विसाल का है अजब तज़ाद के पेश-ए-नज़र हूँ हस्ती में है धूप हिज्र की और साएबाँ विसाल का है है जागने पे ही पड़ता तमाम चाबुक-ए-हिज्र हों आँखें बंद तो सारा समाँ विसाल का है चलो ये हिज्र सही कुछ तो दस्तरस में रहे जो वक़्त आता है वो भी कहाँ विसाल का है ग़रज़ से चुप हैं मगर अहल-ए-दिल समझते हैं कि लफ़्ज़-ए-हिज्र से रौशन-बयाँ विसाल का है कशीद करते हैं इरफ़ान अपने हिज्र से 'तूर' ये ख़ित्ता छोड़ के सारा जहाँ विसाल का है