कितना मुख़्तसर है ये ज़िंदगी का अफ़्साना एक गाम-ए-मर्दाना एक रक़्स-ए-मस्ताना तू ही एक शाकी है ज़ौक़-ए-तिश्ना-कामी का ग़र्क़-ए-मौज-ए-सहबा है जबकि सारा मय-ख़ाना बस यही है ले दे के दूरी-ए-रह-ए-मंज़िल दो क़दम दिलेराना दो क़दम शिताबाना हक़ तुझे है क्या हासिल ज़ेर-ए-चर्ख़ जीने का हादसात-ए-आलम से तू अगर है बेगाना दिल नहीं वो सीने में एक संग-ए-ख़ारा है हो न जिस में पोशीदा आह-ए-दर्द-मंदाना ये भी एक धोका है दीदा-ए-ग़लत-बीं का वर्ना कौन दीवाना और कौन फ़रज़ाना गाह गाह लड़ता रह अक़्ल-ए-मस्लहत-बीं से गाह गाह लेता जा हाथ में भी पैमाना