कितना पोशीदा हवाओं का सफ़र रक्खा गया आने वाले मौसमों से बे-ख़बर रक्खा गया आज भी फिरता हूँ उस की जुस्तुजू में हर तरफ़ कौन सी बस्ती में आख़िर मेरा घर रक्खा गया चंद मुबहम ख़्वाब आँखों में लिए फिरता हूँ मैं और क्या मेरे लिए ज़ाद-ए-सफ़र रक्खा गया दोस्तों में कुछ मिरी पहचान तो बाक़ी रहे इस लिए मुझ में अजब रंग-ए-हुनर रखा गया उस हथेली पर चमकती रेत के ज़र्रे हैं अब जिस हथेली पर कभी गंज-ए-गुहर रखा गया नोक-ए-नेज़ा पर कभी तश्त-ए-रऊनत में कभी हर तमाशे के लिए मेरा ही सर रक्खा गया मेरा अपना ख़ौफ़ ही क्या कम था लेकिन ऐ 'रफीक' मेरी अपनी ज़ात में किस किस का डर रक्खा गया