कितने अंजान जज़ीरों में मुझे ले के चला दिल कि अन-देखे ज़मानों में मुझे ले के चला मैं ने क्या रंग सजाए थे तिरे ख़्वाबों में और तू कैसे सराबों में मुझे ले के चला बे-रिदाई के भी दिन देखने वाले थे कि जब हाकिम-ए-वक़त असीरों में मुझे ले के चला उसे मालूम था निस्बत मिरी सादात से है जो बरसते हुए तीरों में मुझे ले के चला जब भी खोला है दर-ए-शहर-ए-मसर्रत तो कोई फिर से नाशाद जहानों में मुझे ले के चला दिल को बे-रंग सी महफ़िल ही फ़क़त भाती थी वही वीरान से चेहरों में मुझे ले के चला जा रही थी मैं किधर को मगर ऐ उम्र-ए-रवाँ वक़्त ये कौन से लम्हों में मुझे ले के चला