कितने हाथ सवाली हैं By Ghazal << हक़ीक़तें हों मयस्सर तो ख... बे-हिसी पर हिस्सियत की दा... >> कितने हाथ सवाली हैं कितनी जेबें ख़ाली हैं सब कुछ देख रहा हूँ मैं रातें कितनी काली हैं मंज़र से ला-मंज़र तक आँखें ख़ाली ख़ाली हैं उस ने कोरे-काग़ज़ पर कितनी शक्लें ढाली हैं सिर्फ़ ज़फ़र 'ताबिश' हैं हम 'ग़ालिब' 'मीर' न 'हाली' हैं Share on: