कितने ही रंग खुले जाते हैं शादाबी में तुम ने देखा है मुझे आलम-ए-बे-ख़्वाबी में चश्म-ए-नमनाक है ख़्वाबों की नुमू-याबी में और हम महव हैं इक आलम-ए-ग़र्क़ाबी में ये मोहब्बत है जुनूँ है या फ़साना है कोई कैसे असरार हैं पिन्हाँ मिरी बेताबी में कितने तूफ़ान समेटे हुए हम रहते हैं कितनी हलचल है मची इस दिल-ए-सैलाबी में कैसे ही रम्ज़-ए-सहर हम पे खुले जाते हैं क्या सुकूँ पाते हैं हम लम्हा-ए-सैराबी में